स्मृतिपटल / आकाश भारद्वाज

१.
तेज बारिश हो रही है। हाता पानी से भर गया है। मैं आँगन में सीढ़ी पर कागज की नाव लिए बैठा हूँ। मुझे याद हैं तो बन्दर, अमरूद का पेड़ और वो घर। उस घर की दीवारों से कहीं-कहीं ईंटें दीख रहीं हैं। माँ- पिता और कुछ लोग कोई फैसला करने बैठे हैं। पानी मटर के दानों की तरह मेरे पैरों से टकरा कर खिलवाड़ कर रही है । आवाजें ठहर कर आती हैं जैसे कोई कुछ पूछ रहा हो उनसे । मेरी नाव पानी में डूब गयी या अब भी तैर रही है मुझे ठीक से याद नहीं

२.
ताँगे की टक-टक और नया घर। माँ बहुत हिदायतें देती हैं। हमें बड़ा बनना है। उनकी शिलाई मशीन की आवाज़ मेरे कानों में अब भी दौऱ रही है। दीदी लाल साईकिल लिये मैदान से घर की ओर आ रही हैं। उसके घुँघराले बाल हैं और नाकों पे गोल चश्मा। वे अपने साथ कैसेट भी ला रही हैं जिसमें सोनू निगम के गाने हैं। माँ उधर हनुमान चालीसा पढ़ती हैं। एक सुबह अचानक पिताजी घर आये हैं, बरामदे में झाड़ू लगा रहे हैं। माँ ने कहा अगर कैमरा चाहिये तो उनसे कह दो । हाँलाकि उनके झोले में कुछ किताबें और एक टॉर्च ही हैं, फिर भी मैं कह देता हूँ। वे दबे होठों से मुस्कुरा देते हैं, जैसे कुछ कहना चाहते हों, कि जैसे वो भी कुछ माँग रहे हों।

३.
मैंने और मेरे भाई ने चोरी करनी सीख ली है, मेलों से खिलौने और घर से पतंग उड़ाने के लिये पैसे। कुछ सालों बाद जब उसे चोर क़रार दिया जाता है तो मैं पूरी रात रोता हूँ । कुछ दिनों पहले उसने कहा वह “चोरी” पे एक उपन्यास लिखना चाहता है ।

४.
हम लैम्प को घेरे किताबों में खजाने ढूंढ रहे हैं ।माँ हमेशा किसी कोने से देख रहीं होती हैं। बहन ने जैसे ही झपकी लगाई, उसे एक चमेटा पऱ जाता है। माँ हमेशा सख़्ती से पेश आती हैं। उन्हें रामधारि सिंह दिनकर की वीर रस की कवितायें पसंद हैं…फिर दे दो हमें सिर्फ़ पाँच गा्म, रखो अपनी धरती तमाम…लेकिन वे हल्की मिज़ाज की भी हैं। मेरे तकिये में एक तोता है उनका बनाया हुआ। मैं उसपे अपना सर रख, उनसे चिपककर, उनके साथ रहता हूँ।

५.
अगली सुबह एक नया आदमी आता है। घनी दाढ़ी- मूँछों में अपने साथ एक अटेची लटकाये। घर से अच्छे खाने की ख़ुशबू आ रही है। मैं सोचता हूँ कोई गेस्ट है। लेकिन वो कई दिनों तक हमारे यहाँ रूकता है। माँ उन दिनों मेरे साथ नहीं होतीं उनका तोता होता है। वे कहती हैं- वो तुम लोगों से कुछ पूछना चाहते हैं, मैं सबसे तँग आ चुकी हूँ। मेरी सहानुभूति उनके साथ होती है, लेकिन अगले ही पल हम कटघरे में खड़े होते हैं। हमपे छड़ी की बारिश हो रही होती है। मैंने उसकी अटेची में जनशक्ति की एक प्रति देखी थी । मैं उस आदमी से पूछना चाहता हूँ  उसकी क्रांति का रंग ।

६.
माँ, मैं तितली हूँ । क्या तुम मुझे उड़ने दोगी । देखो तो मेरे पँख लग गये हैं- दीदी ने कुछ ऐसा ही कहा था । माँ ने सुनकर अनसुना कर दिया था ।

७.
मैं चौकी पे लेटा आसमान में तारे देख रहा हूँ। मैंने करवट ली तो ऐसा लगा जैसे किसी सपने से बाहर धकेल दिया गया हूँ। माँ अस्पताल से वापस नहीं लौटी हैं। दीदी जंगल में गुम हो गयी हैं । मैं किवाड़ बंद किये कमरे में रो रहा हूँ और सोचता हूँ जब तक रोने का मतलब समझ नहीं आता तब तब कमरे से बाहर नहीं निकलूँगा ।

७.
कमरे का दरवाज़ा खुला तो हम एक नये शहर में हैं । चाचाजी हमसे बहुत प्यार करते हैं । अपनी गोदी में बिठा तारे दिखलाते हैं और कहानियाँ सुनाते हैं । वैसे वो घर में काम करने वाली बाई से भी उतना ही प्यार करते हैं। लेकिन इस बारे में कोई कुछ नहीं बोलता । वो मुिंसफ हैं। किसी को फाँसी देना उन्हें प्रतिष्ठा की बात लगती है, किसी के कपड़े के अंदर झाँकना एक आम बात है। एैसे में मैं घर में कम और अख़बार में ज़्यादा रहने लगा हूँ।

८.
मैं जितना देखता हूँ उतना समझ नही पाता । बहन परेशान रहती है । वो शायद कुछ कहना चाहती है, लेकिन हम सुन नहीं पाते । उसने अपने अंदर इतिहास की कई बारिकियाँ समेट रखी है। शीशे के छोटे टुकड़े हैं । उन्हें डर है उनके पैर कट जाने का। मैं उनपे चल उससे आँख मिलाकर कुछ कहना चाहता हूँ – हम पार कर सकते हैं कोई भी खाई। हम चाहे तो अपने पुल हो सकते हैं।

९.
अंधेरे, चमकते शहरों और गाऱी की घिघियाती आवाज़ों से गुज़रते हुए मैंने हमेशा उनके बारे में सोचा है जो कहीं दूर चले गये हैं। जैसे कहीं दूर चले जाना ही पास रहना हो- किसी ने कहा था । मुझे इन्टिमेसी से डर लगता है। मैं कोई नदी नही जो कहीं से निकल कहीं को जा रहा हूँ अख़बारों में मृत्यु की ख़बरें मुझे अपने मृत्यु की याद दिलाती है। कुछ पढ़कर भूल जाना मेरे लिये संभव नही। जब से कवितायें लिखनी शुरू की हैं मैने झूठ को भी सच लिखा है। मैं दुनिया को समझना चाहता हूँ स्वप्न की तरह।

१०.
कुछ समय ऐसे होते हैं जब आपके पास कुछ जलाने के लिए नही होता सिवाय सिगरेट के। मैं डर गया था। मुझे पाँचवी मँजिल से लोगों के चेहरे धुँधले नज़र आते । सब कुछ छोऱ अपने घर की ओर भाग गया । मैंने रात नौ बजे की ट्रेन पकड़ी। बिना खाये सो गया। सुबह ट्रेन से उतरा तो ऐसा लगा जैसे कहीं और पहुँच गया हूँ । बाहर चाय वाले से पूछा तो उसने चाय की एक प्याली आगे बढ़ा दी । कॉलेज गया तो पता चला पिता यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में गुम हो गये हैं ।घर सारे बदल गये थे । कोई भी तस्वीर याद करता हूँ तो वो धुँधली नज़र आती है । कभी- कभी डर सा लगता है एज इफ़ आई एम मेड अप ओफ मेमोरिज… मेरे चेहरे पे सिकन आती है…मैं कहीं और चला जाने लगा हूँ …



Akash Bharadwaj is a PhD student researching on aspects of Bihari identity at Shiv Nadar University in Noida, India. He’s extremely fond of chai, cigarettes and candies. 

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Comments (

1

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  1. (Mrs.)Tara Pant

    यथार्थ रुचिकर चित्रण। बहुत खूब।👌👍🎉

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