कुछ नहीं, फिर भी… / राकेश कुमार मिश्र

लड़का : क्या तुमने कुछ कहा ?

लड़की  : नहीं, मैंने तो कुछ नहीं कहा।

लड़का : पर मैंने तो सुना।

लड़की : फिर भी तुमने क्या सुना ?

लड़का : शायद तुम्हें पता नहीं, तुम हमेशा कुछ कहने के कोशिश में रहती हो। पर इस कोशिश में शब्द तुम्हारा साथ नहीं देते। असल में शब्द बहुत शरारती होते हैं। इतने शरारती कि इनके बारे में सोचते हुए मुझे हमारी होने वाली बेटी की याद आती है।

(दोनों चुप हैं, वो चुप्पी जैसे दोनों के बीच में बैठी हो)

लड़का : क्या फिर तुमने कुछ कहा ?

लड़की  : नहीं, बिल्कुल नहीं। फिर भी तुमने क्या सुना ?

लड़का : मैंने फिर से तुम्हारे कहने की कोशिश को सुना। फिर से जाना की शब्द हमारे भीतर बहुत टूट-फूट मचाते हैं। 

(फिर एक चुप्पी)

लड़का  : क्या फिर तुमने कुछ कहा ?

लड़की : नहीं, बिल्कुल नहीं।  पर तुम सुन कैसे पा रहे हो ?

लड़का : कुछ इस तरह की मैं भूल गया हूँ की मेरे पास दो कान है। और सुनने का काम हम दोनों कानों से करते हैं। कई बार मैं यह भी मान लेता हूँ की मेरे दोनों कानों को हल्का पीला बुखार हो गया है | और वो सुनने का काम बंद कर देते हैं। वो फिर वहीं करने लगते हैं, उन्हीं ध्वनियों को एकत्रित करने लगते हैं, जिन्हें मैं सुनना चाहता हूँ।

लड़की : क्या तुम्हारे कानों को अपने बीमारी के बारे में पता है ?

लड़का : नहीं, मैंने अपने कानों को इस बीमारी के बारे में नहीं बताया। अगर बता दुंगा तो बेचारे घबड़ा जायेंगे। किसी डॉक्टर के पास दौड़ते नज़र आयेंगें।

लड़की : क्या तुम हमेशा ही कुछ ना कुछ सुनते रहते हो ?

लड़का  : हमेशा नहीं, जब मैं कुछ सुनना चाहता हूँ तभी कुछ सुनता हूँ। इस सुनने में मेरी इच्छाएँ शामील होती हैं।

लड़की : क्या इन इच्छाओं के बारे में  तुम्हारे कानों को पता है ?

लड़का : उन्हें नहीं पता। पर एक दिन उन्हें पता चल गया था। तो, मैंने दोनों कानों के बीच में झगड़ा लगा दिया। झगड़े के कारण एक कान दुसरे कान के मुकाबले ज़्यादा सुनने लगा | और दूसरा कान अक्सर उदास रहने लगा | इतना उदास की वो बहुत कुछ नहीं सुन पाता था |  

लड़की : क्या तुम चींटियों को चलते हुए सुन पाते हो ?

लड़का : हाँ | मैं चीटियों को चलते हुए सुन पाता हूँ | और उनके चलने की इच्छा और उद्देश्य को भी सुन पाता हूँ |

लड़की : क्या तुम फूलों को खिलते हुए सुन पाते हो ?

लड़का : हाँ | और फूल के कोमलता को फैलते हुए भी सुन पाता हूँ | उन्हें अपने भीतर खूब जगह देता हूँ |

लड़की : तुम्हें तारों का विचलन कैसा लगता है ?

लड़का : अद्भूत | उसे भी मैंने सुना है | इन ध्वनियों को हमारी बेटी शब्द देगी |

लड़की : क्या हमारी बेटी रेत के संगीत को भी शब्द देगी ?

लडका : नहीं, वो बहुत आगे जायेगी | इतनी आगे की वो आकाश के हर गीत को शब्द दर शब्द याद रखेगी |

लड़की : सुबह के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है ?

लड़का : सुबह से मुझे बेहद लगाव है | क्योंकि जब तुम्हें पहली बार देखा था तो तुम एक सुबह बेतहाशा छींकती हुई मिली थी |

लड़की : क्या तुम्हें वो सारे दृश्य एक साथ, एक क्रम में याद है ?

लड़का : हाँ, बिल्कुल याद है | ये भी की बार-बार छींकती हुई तुम बहुत दयनीय लगती थी | बार- बार तुम्हारा शरीर हिलता था | और बार- बार मैं डरता था | मेरे भीतर हलचल होती थी | बहुत देर तक |

लड़की : और क्या याद है ?

लड़का : ये भी कि बार- बार छींकते हुए तुम्हारा नाक लाल हो जाता था | अगर तुम्हें काला रंग पसंद होता तो वो काला हो जाता |

लड़की : तुम्हें इतना कुछ कैसे याद रहता है ?

लड़का : मालूम नहीं |

लड़की : क्या तुम्हें सपने आते हैं ?

लड़का : हाँ, आते हैं | लेकिन वो इतने बिखड़े होते हैं की मैं उन्हें जोड़ नहीं पाता |

लड़की : तुम्हारे सपनों में इतना बिखड़ाव क्यों होता है ?

लड़का : शायद मेरे बिखड़े जीवन के कारण |

लड़की : तुम्हारे सपनों का रंग कैसा है ?

लडका : मेरे सपनों का कोई स्थाई रंग नहीं है | ये अक्सर बदलते रहते हैं | पहले मेरे सपनों का रंग काला था | लेकिन अब वो गुलाबी हो गए हैं |

लड़की : क्या तुम्हें गुलाबी रंग पसंद है ?

लड़का : मुझे नहीं, मेरे सपनों को पसंद है |

लड़की : तुम्हारे सपनों में कौन-कौन सी चीजें आती हैं ?

लडका : मेरे सपनों में चीजें और घटनाएँ दोनों आती हैं| घटनाओं में ये अक्सर होता है की मैं बारिश में भींग रहा हूँ | और तुम मेरे पास खड़ी हँस रही हो | हमारे छाते अचानक से गायब हो गए हैं | हम कहीं ना पहुँचने के लिए कहीं जा रहे हैं | और तुम बार-बार पीछे छूट जा रही हो |

(लड़का अचानक से चुप हो जाता है, चेहरा पर उदासी, जैसे कुछ खो गया हो )

लड़की : क्या तुम्हारे सपनों में आसमान होता है ?

लडका : पता नहीं |

लड़की : क्या सपने में तुमने साईकिल चलाई है ?

लड़का : पता नहीं |

लड़की : क्या तुमने सपने में चिड़ियों से बात की है ?

लड़का : पता नहीं |

लड़की : क्या तुम मेरे सवालों से परेशान हो गए हो ?

लड़का : नहीं | मैं डर गया हूँ की हम इस खेल को ज़्यादा देर तक नहीं खेल पाएंगे |

लड़की : तो, क्या हमें उस समझदारी की दुनिया में लौटना पड़ेगा ?

लड़का : लौटना ही पड़ेगा | उस दुनिया में लौटने के लिए हम सभी अभिषप्त हैं | चलो, लौटते हैं |

(दोनों बहुत धीरे-धीरे उठते हैं | जैसे नींद से उठे हों | बैकग्राउंड में चिड़ियों की आवाज़ | एक आलाप जैसे कोई नींद से जागा हो | दोनों ही किसी धुंध में गायब हो जाते हैं )



राकेश कुमार मिश्र. लम्बे समय से रंगमंच, साहित्य और अनुवाद की दुनिया में सक्रिय | ‘परिकथा’, ‘शेष’, ‘सवंदिया’, ‘अकार’, ‘आजकल’, ‘सदानीरा’ में कविताएँ प्रकाशित | ‘पहल’, ‘दखल की दुनिया’,‘जानकी पुल’, ‘हिंदी टेक’, ‘हिंदी समय’, ‘हिन्दवी ब्लॉग’, ‘पहली बार ब्लॉग’, ‘इन्द्रधनुष’, ‘संवाद न्यूज़’, ‘ख़बरची’, ‘लोकमत समाचार’, ‘डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट’ और ‘मधुमती’ में लेख, डायरी, अनुवाद और समीक्षा प्रकाशित | 2016 में नाटक उम्मीद का गीत का लेखन और निर्देशन |

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