मालरो जब फ़्रान्स के संस्कृति मंत्री थे तो पेरिस की इमारतों की धुलाई कर के उनका कालापन दूर कर दिया गया था.१९८० में जब मैं पहली बार प्राहा गया था ,तो वहाँ इमारतें काली सी थीं और ईस्टर सफ़ेद था यानी बर्फ़ ग़लत समय पर भी गिर रही थी.पर मुझे प्राहा ख़ूबसूरत लग रहा था.तब काफ़्का का नाम लगभग चोरी से लिया जाता था.मेरा सरकारी गाइड इस नाम को सुनने के लिए उत्सुक नहीं था.उन दिनों वे गाइड कुछ जासूसी भी करते रहते थे.मेरे होटेल से काफ़्का की क़ब्र दूर नहीं थी पर गाइड की इस नाम में कोई दिलचस्पी नहीं थी.लेकिन सारे शहर में काली इमारतों पर सफ़ेद बर्फ़ मुझे काफ़्काई लग रही थी.नदी से क़िला रहस्यमय लग रहा था.चेक कवि जोसेफ़ हैंज़्लिक मुझसे लेखकों के क्लब में देर रात तक सफ़ेद वाइन पीते हुए भारतीय इमर्जेन्सी के बारे में बात करते रहे और गाइड बेचारा परेशान बैठा रहा.उसे ड्राइव करनी थी इसलिए वाइन भी नहीं पी पा रहा था.और अंत में उससे रहा नहीं गया.भीतर सफ़ेद वाइन और बाहर रात की चाँदनी में सफ़ेद बर्फ़ और एक बड़े कवि की छोटी-छोटी उत्सुकताएँ.
बरसों बाद जब मैं २०१५ के अप्रैल में चित्रकार नरेंद्रपाल सिंह की प्राहा में प्रदर्शनी के सिलसिले में एक पखवाड़ा इस अद्भुत शहर में था तो काफ़्का का नाम एक भव्य विज्ञापन में बदल चुका था.जहाँ जाओ वहाँ काफ़्का था,उसकी मूर्ति,उसकी किताब,उसकी टी शर्ट ,उसका संग्रहालय सब कुछ काफ़्कामय था.उसकी क़ब्र शहर का बड़ा आकर्षण थी.यानी अब १९८० की काफ़्काई सच्चाई एक नए क़िस्म के कपड़ों में काफ़्काई हो गयी थी.
ख़ुद काफ़्का ने अपनी डायरी में प्राहा के बारे में लिखा है,यह शहरों में एक शहर है,इसका अतीत वर्तमान से अधिक महान था.किंतु इसका वर्तमान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है.
इस महान शहर से एक और महान नाम संगीतकार मोत्सार्ट का जुड़ा है,जिनके संगीत के बारे में कहा जाता है कि वह मनुष्य को बुद्धिमान बनाता है.क्या कुछ प्राहा जैसे शहर मनुष्य को बुद्धिमान नहीं बनाते हैं?
हिंदी लेखकों में निर्मल वर्मा और प्राहा बहुत क़रीब रहे हैं,जो प्राहा के अद्भुत लिटल क्वॉर्टर माला-स्त्राना के बारे में कहते हैं,सब कुछ वैसा ही है,जैसा सदियों पहले था ;कुछ भी नहीं बदला,लगता है जैसे छतों पर मँडराते बादल भी बहुत पुराने हैं,बरसों से यहीं,आकाश के इस टुकड़े के आसपास चक्कर लगा कर वापस लौट आते हैं.निर्मल के बड़े भाई नामी कलाकार राम कुमार ने प्राहा को परियों के देश की याद दिलानेवाला शहर कहा है.
एक अन्य वरिष्ठ हिंदी लेखक विष्णु खरे भी प्राहा लम्बे समय तक रहे हैं.उनका मानना है कि प्राहा का रंग मूलतः धूसर या ग्रे है जबकि नरेंद्रपाल ने शहर को गहरे नीले रंग के आलोक में देखा है.पर नरेंद्र जिस मौसम में प्राहा में रहे उसमें सूखी टहनियों में हरियाली आते देखने का अपना सुख था और वे चटख रंगों के चित्रकार हैं.राम कुमार ने शुरू में वाराणसी को ग्रे,काले से रंगों में देखा था पर मनु पारेख का वाराणसी चटख रंगों में सामने आया है.
आज के प्राहा में बीटल्स गायक जोड़ी के जान लेनन के नाम की एक दीवार शहर का बड़ा आकर्षण है जहाँ नरेंद्रपाल के शोख़,चटख रंग युवा वर्ग को प्रेरित करते हैं.पेरिस में प्रेम के प्रतीक तालों का पुल अब बंद कर दिया गया है पर प्राहा का तालों का पुल अभी जीवित है,उसी दीवार के नज़दीक.
प्रसिद्ध कवि पाब्लो नेरूदा ने चेक लेखक यान नेरूदा से अपना नाम लिया था जिनके नाम से प्राहा के केंद्र में एक सड़क है और दो सूरज नाम का एक ऐतिहासिक बार वहाँ है जहाँ की एक वेटर नरेंद्रपाल के चित्रों पर फ़िदा हो गयी और बोली ,मेरे पास सिर्फ़ देने को एक हज़ार क्राउन हैं.नरेंद्र ने उसे एक नहीं दो चित्र इस क़ीमत पर दे दिए और वह प्यार से बोली,अगला बियर का राउंड मेरी तरफ़ से.प्राहा हल्के बीयर के नशे में ज़्यादा ही परी लोक नज़र आने लगता है.
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विनोद भारद्वाज हिन्दी के सुपरिचित कवि, कहानीकार, फिल्म और कला समीक्षक हैं।दो उपन्यास (सेप्पुकु, सच्चा झूठ), दो कविता संग्रहों (जलता मकान, होशियारपुर) के अलावा कला के सवाल, नया सिनेमा, समय और सिनेमा, कला-चित्रकला, आधुनिक कला कोश (सम्पादित) आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
नरेन्द्र पाल सिंह मूल रूप से बिहार के रहने वाले हैं। लगभग तीन दशकों से ये चित्र बना रहे हैं। इनकी एकल प्रदर्शनियां इटली, स्पेन, बर्लिन, अमेरिका, दक्षिण कोरिया और भारत में सराही गई।
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